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लैंगिक अपराधों के लिए ट्रायल से पहले (प्री-ट्रायल) की प्रक्रियाएं – कैसे ये प्रक्रियाएं बालक हितैषी हो सकती हैं?

Arjun Singh

Arjun Singh

Project Coordinator

लैंगिक उत्पीड़न से बालकों के संरक्षण का अधिनियम (पोकसो), 2020 के तहत, बाल कल्याण समिति (सीडब्ल्यूसी) एक सहायक व्यक्ति (सपोर्ट पर्सन) को नियुक्त कर सकती है. यह नियुक्ति बालक को जांच-पड़ताल और ट्राय़ल के दौरान सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से की जाती है. पिछले कुछ वर्षों से, बालकों के विरुद्ध होने वाले लैंगिक हिंसा के मामलों में प्रेरणा के सदस्यों को सहायक व्यक्ति की भूमिका में नियुक्त किया जा रहा है.

प्री-ट्रायल प्रक्रिया के तहत, सहायक व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह पीड़ित बालक (और जरूरत पड़ने पर परिवार को) को सीआरपीसी के सेक्शन 164 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने अपना बयान दर्ज कराने में, जगह की पहचान करने (वारदात की जगह की पहचान करने के लिए पुलिस के साथ जाना), और केस के आरोपी की पहचान के लिए होने वाली टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड में हिस्सा लेने में मदद करेगा. इनके अलावा भी प्री-ट्रायल प्रक्रिया में कई और भी प्रक्रियाएं होती हैं.

सितंबर, 2021 में, पोकसो अधिनियम के तहत पंजीकृत एक मामले में सीडब्ल्यूसी ने प्रेरणा को सहायक व्यक्ति के रूप में नियुक्त किया. केस में कई आरोपियों के होने के कारण, इसे एक संवेदनशील मामला समझा जा रहा था. इस कारण से सीडब्ल्यूसी ने पुलिस को यह बताया कि उनकी जांच-पड़ताल के हरेक चरण में सहायक व्यक्ति का होना बेहद आवश्यक है.

 

हालांकि, जब जांच प्रक्रिया शुरू हुई तो प्रेरणा के केस वर्कस को संबंधित दिन की जांच प्रक्रिया के बारे में अक्सर सूचित किया जाता था. एक अपेक्षा यह भी थी कि प्री-ट्रायल की प्रक्रिया के दौरान बालक की  सहायता करने के लिए सीमित नोटिस अवधि के भीतर दिन के किसी भी समय केस वर्कर उपलब्ध होगा. इस कारण से पुलिस के साथ तालमेल बनाना समय के साथ चुनौतीपूर्ण हो गया. इससे बालक को प्रक्रिया की दिशा में तैयार करने और दिन की योजना बनाने का केस वर्कर का दायरा भी सीमित होने लगा. सोशल वर्कर्स को केस से संबंधित उपयोगी सूचना समय से न मिलने पर जांच पड़ताल की प्रक्रिया में देरी होने लगी, क्योंकि सोशल वर्कर्स के पास अन्य केसों को लेकर भी व्यस्तता होती है. केस को लेकर सूचना पहले मिलने से केस वर्कर्स प्रक्रियाओं के लिए ज़्यादा बेहतर तरीके से तैयार हो पाते और बेहतर रूप से उपस्थिति दर्ज करा पाते. सोशल वर्कर और जांच अधिकारी के बीच, सूचना पहले देने के महत्व और कैसे सूचना पहले देने से प्रक्रिया को बालके के लिए आसान बनाया जा सकता है, इन विषयों पर समय-समय पर चर्चा हुई.

 

 

परीक्षण शिनाख्त परेड (टेस्ट आइडेंटिफ़िकेशन परेड-टीआईपी) एक ऐसी ही प्रक्रिया है, जिसमें आरोपी की पहचान के लिए सोशल वर्कर बालक के साथ जाता है. अधिकतर आपराधिक मामलों में मजिस्ट्रेट के सामने आरोपी की पहचान करने के लिए टीआईपी का इस्तेमाल किया जाता है. टीआईपी के दौरान आरोपी की पहचान करने में गवाह की अहम भूमिका होती है क्योंकि परेड के दौरान आरोपी की पहचान करना गवाह की जिम्मेदारी होती है. कई मामलों में पीड़ित खुद ही गवाह होता है. इस प्रक्रिया का उद्देश्य यह होता है कि पीड़ित या गवाह अन्य लोगों के बीच आरोपी की पहचान सफलता पूर्वक कर पाता है या नहीं. कानून अक्सर इस प्रक्रिया का इस्तेमाल गवाह की विश्वसनीयता जानने के लिए करता है और इसका इस्तेमाल अक्सर उन मामलों में किया जाता है जब पीड़ित ने वारदात से पहले आरोपी को कभी न देखा हो.

 

इस प्रक्रिया के लिए, पुलिस ने सहायक व्यक्ति यानी सोशल वर्कर को परेड शुरू होने के एक घंटा पहले इसकी सूचना दी. सूचना इतनी जल्दबाज़ी में मिलने के कारण सोशल वर्कर के पास तैयारी के लिए ज्यादा विकल्प नहीं थे, और सूचना मिलते ही तत्काल रूप से सोशल वर्कर को बालक से मिलने के लिए निकलना पड़ा, ताकि वह बालक को प्रक्रिया के लिए तैयार कर सके. हालांकि, बालक, सहायक व्यक्ति और पुलिस जबतक जेल पहुंचे तबतक लगभग दोपहर के एक बज चुके थे. इस समय तक जेल का प्रभारी अधिकारी अपने दोपहर के ब्रेक के लिए निकल गया था. इसके बाद, पुलिस ने केस वर्कर को बताया कि प्रभारी अधिकारी अपने ब्रेक से लगभग 4 बजे तक वापस आएंगे, जिस वजह से केस वर्कर को बालक और पुलिस के साथ जेल के सामने ही इंतजार करना पड़ा. इस दौरान पुलिस अधिकारी दूसरे आपराधिक मामलों में पकड़े गए आरोपियों से बातचीत करने लगे.

 

वहीं, दूसरी ओर बालक और सोशल वर्कर को जेल के बाहर दूसरे आरोपियों के साथ इंतजार करना पड़ा, हालांकि ये आरोपी बालक के केस से संबंधित नहीं थे. लगभग एक घंटे तक इंतजार करने के बाद, केस वर्कर ने जांच अधिकारी से बात की और मौजूदा स्थिति की सूचना सीडब्ल्यूसी को दी. सीडब्ल्यूसी ने बात का संज्ञान लेते हुए मामले को लेकर जांच अधिकारी से बात की, जिसके जवाब में जांच अधिकारी ने कहा कि वह इस मामले में ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं क्योंकि यह पुलिस विभाग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है. इसके बाद, बालक और सोशल वर्कर, दो महिला पुलिस कर्मियों के साथ पुलिस वाहन में इंतजार करते रहे.

 

लगभग, शाम के 4 बजकर 40 मिनट पर बालक को पहचान परेड के लिए अंदर बुलाया गया. हालांकि, बालक के साथ सहायक व्यक्ति को जेल परिसर के अंदर जाने की अनुमति नहीं दी गई. टीआईपी को लेकर कोर्ट ने जो दिशा-निर्देशों जारी किए हैं उनके तहत बाल गवाह, बालक को यह अधिकार है कि वह इस प्रक्रिया के दौरान अपने साथ अपने माता-पिता या अपने रिश्तेदार या किसी भरोसेमंद व्यस्क को साथ ले जा सकता है. ताकि वह प्रक्रिया के दौरान सहज महसूस करे. हालांकि, जमीनी स्तर पर सहायक व्यक्ति को अक्सर जेल के परिसर में जाने की अनुमति नहीं दी जाती है. पिछले अनुभवों से सोशल वर्कर को यह अंदाजा हो गया था कि उसे बालक के साथ जेल परिसर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं मिलेगी. इसलिए, सोशल वर्कर ने बालक को पहले ही प्रक्रिया के बारे में जानकारी दे दी थी. बालिका ने केस वर्कर को बताया कि वह प्रक्रिया के लिए अकेले अंदर जाने को लेकर आश्वस्त महसूस कर रही है. सहायक व्यक्ति ने बालक को यह बताया कि प्रक्रिया के खत्म होने तक वह बाहर उसका इंतजार करेगा.

 

आरोपी के संपर्क में आना पीड़ित के लिए भावनात्मक रूप से चुनौतीपूर्ण हो सकता है, जिसके कारण सेमी-रिफ्लेक्टिव स्क्रीन या इसी प्रकार की किसी और तकनीक को आवश्यक रूप से इस्तेमाल करने का दिशा-निर्देश कोर्ट ने जारी किया है. ताकि टीआईपी प्रक्रिया में आने वाले आरोपियों से बालक का सामना नजदीक से न हो. बालक को जेल परिसर के अंदर ले जाने के लगभग 7-8 मिनट बाद ही वह जेल परिसर से बाहर आ गया और बाहर आते ही उसने केस वर्कर से बोला कि उसके और आरोपी के बीच कोई भी चीज यानी सेमी-रिफ्लेक्टिव स्क्रीन नहीं थी और आरोपी बिल्कुल उसके सामने था. उसने बताया कि उसे अंदर डर लग रहा था, लेकिन उसने परेड में आरोपी की पहचान कर ली है.

 

इस दौरान केस वर्कर ने पुलिस को परिसर में खोजने का प्रयास किया, ताकि वह टीआईपी के दौरान अपनाई गई प्रक्रिया के बारे में शिकायत कर सके, लेकिन मौके पर कोई पुलिसकर्मी नहीं मिला. जेल से पुलिस के वाहन में बाल देखभाल संस्थान की ओर आते वक्त बालक ने केस वर्कर को बताया कि उसे भूख लगी है, जिसके बाद केस वर्कर ने पुलिस से कुछ खाने-पीने के लिए एक स्थान पर गाड़ी रोकने के लिए कहा. ऐसे मामलों में अक्सर, सोशल वर्कर कुछ खाने का सामान और पानी जरूर ले जाते हैं, क्योंकि उन्हें यह अनुमान रहता है कि यह प्रक्रिया बालक के लिए जटिल और थकाऊ हो सकती है. हालांकि इस केस में, टीआईपी की सूचना सोशल वर्कर को समय से नहीं दी गई थी, तो सोशल वर्कर को अपनी तैयारी करने का पर्याप्त समय नहीं मिला. 

जहां बालक के लिए एक बाल हितैषी प्रणाली तैयार करने की बारी आती है तो मौजूदा मानकों और तरीकों में काफी सुधार की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पीड़ित हो फिर से आघात न पहुंचे और फिर से पीड़ित होने की भावना न आए. ऐसा विशेषकर जांच की प्रक्रिया और ट्रायल के दौरान सुनिश्चित करना बेहद आवश्यक है. बाल गवाह के द्वारा टीआईपी प्रक्रिया को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट ने दिशा-निर्देश दिए हैं कि जेलों को 12 वर्ष से कम उम्र के बालकों के लिए विभिन्न अनुकूल उपाय अपनाने होंगे. लैंगिक हिंसा के पीड़ित बालकों की ज़मीनी स्तर पर मदद करने के दौरान हासिल हुए अनुभव के आधार पर प्रेरणा का मानना है कि 18 वर्ष से कम उम्र के बालकों के लिए भी ऐसे दिशा-निर्देश जारी करने से, बालकों में प्रक्रिया के दौरान दोबारा से प्रताड़ित होने की भावना उत्पन्न होने में गिरावट आएगी.

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