Prerana ATC | Fight Trafficking

search

किशोर न्याय प्रणाली में लैंगिक पहचान खोज रहे बालकों को सहारा देना

Arjun Singh

Arjun Singh

Project Coordinator

प्रांतिक (बदला हुआ नाम) एक 16 वर्षीय बालक है, जो मुंबई की एक कम आय वाले परिवार से आता है. वह अपने परिवार के नौ बालकों में से चौथे नंबर का बालक है. उसके पिता एक ड्राइवर के रूप में काम करते हैं और उसके 2 भाई-बहन, लोगों के घरों में घरेलू सहायता प्रदान करने का काम करते हैं. प्रांतिक की माँ मानसिक स्वास्थ्य विकार (मेंटल हेल्थ डिसॉर्डर) से पीड़ित है.

प्रांतिक को वर्ष 2019 में लैंगिक हिंसा के पीड़ित के रूप में किशोर न्याय प्रणाली में लाया गया था. उस वक्त प्रांतिक की उम्र महज 13 वर्ष थी. उसे एक रेलवे स्टेशन से बचाया गया था, जब वह अकेले ही शहर छोड़ कर जाने का प्रयास कर रहा था. प्रेरणा के पास बालक का मामला मार्च, 2019 में भेजा गया. बाल कल्याण समिति ने सामाजिक अन्वेषण करने की जिम्मेदारी प्रेरणा को दी, जिसमें बालक के परिवार की सामाजिक व आर्थिक स्थिति और उनके बैकग्राउंड की बारे में पता करना था. ऐसा इसलिए ताकि बालक की परिस्थिति को समझते हुए उसके पुनर्वासन का फैसला लिया जा सके.

बालक की लिंग की पुष्टि

पिछले दो साल में बालक के साथ प्रेरणा के हस्तक्षेप के दौरान, एक पुरुष (Male) के रूप में जन्म लेने वाले प्रांतिक ने प्रेरणा को बताया कि वह खुद को एक स्त्री (Female) के रूप में बुलाया जाना ज्यादा पसंद करेगा, इसलिए उसे एक बालिका की तरह संबोधित किया जाए. प्रेरणा में हमारा मानना होता है कि बालक के पास खुद की पहचान तय करने का पूरा अधिकार होता है. बालक दुनिया को कैसे देखता है व उससे संपर्क बनाता है, इसमें पहचान तय करने का अधिकार महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. इसलिए, हम हमेशा इस बात का ध्यान रखते हैं कि हम बालक की पसंद का सम्मान करें. प्रांतिक के केस में प्रेरणा उसे एक बालिका के रूप में संबोधित करना जारी रखेगी, इस कारण से इस दस्तावेज में आगे प्रांतिक को साक्षी (बदला हुआ नाम) कह कर संबोधित किया गया है.

.

प्रणाली में चुनौती

मार्च 2019 से लेकर मौजूदा समय तक, साक्षी को 5 अलग-अलग बाल देखभाल संस्थानों (सीसीआई) में आठ बार ट्रांसफर किया जा चुका है. हालांकि सभी संस्थानों ने ट्रांसफर करने के अलग-अलग कारण बताएं है, लेकिन इनमें से एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि सीसीआई के सामने ऐसे बालकों को रखने को लेकर चुनौती खड़ी हो गई जो अपनी लैंगिक पहचान खोज रहे हैं. साक्षी के केस में, इन में से अधिकतर संस्थानों और वहाँ के स्टाफ को ऐसे किसी केस को आजतक संभालना नहीं पड़ा था, जिसमें बालक अपनी लैंगिक पहचान अपने जन्म के/शारीरिक लिंग से अलग बताता है. इस कारण से वह साक्षी की पूरी तरह से मदद नहीं कर पा रहे थे.

प्रेरणा की टीम जब साक्षी के केस में काम कर रही थी, तो उन्हें एक सीसीआई ने अपनी शंका बताते हुए कहा कि वह इस बात से परेशान हैं कि साक्षी की लैंगिक पहचान का नकारात्मक असर सीसीआई के अन्य बालकों पर होगा, क्योंकि उसका खुद को संबोधित करने का तरीका अलग है, जिसे सामान्य नजरिये से नहीं देखा जाता है. साथ ही संस्था ने टीम को यह भी कहा कि वह साक्षी की लैंगिकता को लेकर इसलिए भी परेशान हैं क्योंकि उसकी लैंगिक रुचि अपने साथियों में भी बढ़ रही है.

इस वक्त तक प्रेरणा के सोशल वर्कर सीसीआई के स्टाफ को संवेदनशील बनाने का प्रयास कर रहे थे, और स्टाफ का बर्ताव देखते हुए सोशल वर्कर साक्षी को कुछ दिन ही वहाँ रखने की ही योजना बना रहे थे. इसी दौरान सोशल वर्कर की बातचीत एक अन्य सीसीआई से हुई, जहाँ साक्षी को भर्ती कराया गया. सोशल वर्कर्स को यह अहसास हुआ कि पिछले सीसीआई की तुलना में यहाँ का स्टाफ साक्षी को संभालने और उसे अच्छा महसूस कराने के लिए ज्यादा बेहतर तरीके से तैयार है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस सीसीआई में पहले भी कुछ ऐसे बालक रह चुके थे, जो अपने जन्म के लिंग से अलग लैंगिक पहचान में खुद को संबोधित करना चाहते थे. इस अनुभव ने सीसीआई के स्टाफ को संवेदनशील बना दिया था.

बालकों के संरक्षण के लिए तैयार किए गए तंत्र का एक अहम हिस्सा ऐसे बालकों के लिए भी होना चाहिए, जो किसी अल्पसंख्यक समूह से आते है और जिनकी विशेष जरूरतें होती हैं. बालकों का मार्गदर्शन और प्रशिक्षण बेहतर तरीके से किया जाना चाहिए ताकि वह पहचान को लेकर सहज हो जाए और उससे उनकी क्षमता में विकास हो. वैयक्तिकरण के सिद्धांतो का फैलाव ऐसे होना चाहिए जहां हर बालक को सम्मान मिले और वह सिर उठाकर जी सके. बालकों की देखभाल व संरक्षण की प्रणाली से जुड़े सभी हितधारकों को समय-समय पर लिंग को लेकर संवेदनशील बनाया जाना चाहिए, ताकि बेहतर और निरंतर नतीजे मिले. इसे पूरी प्रणाली में लागू करने के साथ-साथ सभी सीसीआई को निजी तौर पर भी स्टाफ को संवेदनशील बनाने की जरूरत है.

प्रेरणा का हस्तक्षेप

सामाजिक अन्वेषण

 प्रेरणा से एक अन्य नागरिक सामाजिक संगठन के साथ मिलकर सामाजिक अन्वेषण करने के लिए कहा गया, यह संस्था बाल कल्याण समिति (सीडब्ल्यूसी) के रेलवे चाइल्डलाइन प्रोजेक्ट का काम करती है. सोशल वर्कर साक्षी के घर गए और वहाँ उसके भाई-बहनों व माता-पिता के साथ मुलाकात की. उन्होंने सारी जानकारी की पुष्टि की और माता-पिता ने बताया कि साक्षी घर के अंदर भी खुद को एक बालिका के रूप में संबोधित करती थी. जब भी कोई केस वर्कर किसी बालक के घर का दौरा करता है तो वह छोटी-छोटी बारीकियों पर गौर करके यह समझने का प्रयास करते हैं कि बालक का घर उसके लिए कितना सुरक्षित है. इसके अतिरिक्त सोशल वर्कर ने यह भी जानने का प्रयास किया कि साक्षी क्यों अकेले घर छोड़कर जा रही थी और वह क्यों रेलवे स्टेशन में मिली?

शुरुआती बातचीत के दौरान, साक्षी ने बताया था कि उसके पिता हिंसक और शराबी थे. साक्षी के भाई-बहनों से बातचीत के दौरान सोशल वर्कर को इस बात की पुष्टि हुई. घर के दौरे के बाद सोशल वर्कर्स ने मार्च, 2019 में सामाजिक अन्वेषण रिपोर्ट संबंधित सीडब्ल्यूसी के समक्ष प्रस्तुत की.

संस्थागत देखभाल से तालमेल बिठाने में बालक की मदद

 साक्षी के केस में प्रेरणा का हस्तक्षेप उसकी जरूरतों को समझकर उसे संस्थागत देखभाल में सहायता प्रदान करने पर केंद्रित था. इसमें उसे काउंसलिंग सपोर्ट देना, उसकी आगे की पढ़ाई को लेकर योजना बनाना, उसके पसंद के क्षेत्रों की पहचान करना, एक एलजीबीटीक्यू समुदाय के बालक के रूप में उसके संघर्ष को समझना, और उसकी लैंगिक पहचान को स्वीकार करना शामिल था.

इसके साथ टीम ने यह भी सुनिश्चित किया कि वह नियमित तौर पर पुलिस से फॉलो-अप ले रही ताकि साक्षी का शोषण करने वाले आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो सके. लगातार चार महीने तक फॉलो-अप करने के बाद अगस्त, 2019 में एक एफआईआर दर्ज की गई.

साक्षी को कई बार एक संस्थान से दूसरे संस्थान में भेजा जा रहा था, जिसको देखते हुए सोशल वर्कर्स ने साक्षी से उसकी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा. उन्होंने साक्षी के लक्ष्यों को लेकर चर्चा की और उसका ध्यान बेहतर तरीके से लगा रहे और उसका विकास जारी रहे, यह सुनिश्चित करने के लिए शैक्षणिक गतिविधियां भी उसके लिए आयोजित कराई गईं. इस साल प्रेरणा के हस्तक्षेप के दौरान टीम ने देखा कि उसका मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ रहा है. इसका एक प्रमुख कारण उसका एक संस्थान से दूसरे संस्थान में ट्रांसफर किया जाना भी था. प्रेरणा की टीम ने जब साक्षी से बात की उन्हें साक्षी में भावनात्मक आघात के लक्षण भी दिखे. इसमें भरोसे की कमी, भावनात्मक रूप से स्थिरता की कमी, भाग जाने की धमकी और खुदखुशी के ख्याल शामिल थे. प्रेरणा व दूसरी संस्था ने साक्षी का भरोसा केस वर्कर्स पर लाने के लिए मिलकर काम किया, साथ ही उसे उसकी सारी शंकाओं में सहारा दिया और उसकी जरूरतों को समझने की ओर काम किया ताकि उसे सही संसाधन मिल सके.

एलजीबीटीक्यू समुदाय के रिसोर्स पर्सन के साथ बालक को जोड़ना 

प्रेरणा के एक साल के हस्तक्षेप के बाद, यह सभी केस वर्कर्स को स्पष्ट हो चुका था कि साक्षी मुहैया कराए जा रहे सहायताओं के साथ संघर्ष कर रही है. यह देखते हुए कि साक्षी ने अबतक कितना कुछ सहन किया है और उसे और बेहतर सहायता मुहैया कराने के उद्देश्य से यह निर्णय लिया गया कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के रिसोर्स पर्सन से सहायता की जरूरत है. टीम ने मुंबई के एक प्रख्यात क्विअर राइट एक्टिविस्ट को संपर्क किया. सोशल वर्कर्स ने उन्हें साक्षी से मिलाने से पहले सीडब्ल्यूसी से सभी संबंधित अनुमतियां ले ली थी.

साक्षी और क्विअर राइट एक्टिविस्ट की पहली बातचीत से यह स्पष्ट हो गया था कि साक्षी उनके साथ ज्यादा सहज महसूस कर रही है और दोनों में एक दूसरे के लिए परस्पर सम्मान है. साक्षी ने खुलकर अपने जज्बात बयाँ किए और अपने व अपने साथ हुए शोषण की कई ऐसी अंतरंग जानकारी साझा की जो उसने पहले नहीं की थी. अगर बालक को किसी ऐसे शख्स से मिलाया जाए जिससे वह जुड़ पाए, तो केस सकारात्मक मोड़ लेने लगता है. इस केस से प्रेरणा के केस वर्कर्स को इस बात की अहमियत समझ आई. क्विअर राइट एक्टिविस्ट ने साक्षी से पहली बार पूछा की वह अपनी नई लैंगिक पहचान में अपने लिए क्या नाम सोच रही है, जो अभी तक किसी ने साक्षी से नहीं पूछा था. साथ ही उन्होंने पूछा कि खुद के लिए तुम कौन सा संबोधन पसंद करती हो. इसके साथ ही उन्होंने साक्षी के साथ उसकी लैंगिकता और उसकी लैंगिक पहचान के बारे में बात की. उन्होंने साक्षी से उस लिंग से जुड़ा हुआ महसूस करने को लेकर साक्षी की भावनाएं जाननी चाहीं जो उसके जन्म के लिंग से अलग है. इसे आमतौर पर जेंडर डिस्फोरिया कहते हैं. इसके अलावा, उन्होंने साक्षी से उन लोगों के लिए समाज को सुरक्षित स्थान बनाने में समाज की भूमिकी को लेकर चर्चा की, जो अभी अपनी लैंगिक पहचान खोज रहे हैं. इससे साक्षी को यह समझने में मदद मिली कि अगर वह अपने आस-पास के माहौल में सुरक्षित महसूस नहीं हो रहा है तो उसमें उसकी कोई गलती नहीं है और उसमें कोई कमी नहीं है 

समापन विचार

किशोर न्याय प्रणाली में आने वाले एलजीबीटीक्यू समुदाय के बालकों को उस प्रणाली के अंदर ही भेदभाव देखने को मिलता है जिससे उन्हें सहायता और संरक्षण प्रदान करने की अपेक्षा रखी जाती है. एक ओर यह सुनिश्चित करना बेहद आवश्यक है कि इस समुदाय से आने वाले बालकों को उचित सहायता मुहैया कराने के लिए सभी हितधारकों को संवेदनशील होने की जरूरत है, वहीं दूसरी ओर यह समझ आया कि  क्विअर पर्सन को केस में कब लाना है इसकी पहचान करना भी बेहद जरूरी है, ताकि बालक का बेहतर मार्गदर्शन हो सके. सोशल वर्कर्स को हमेशा यह याद रखना चाहिए कि अपनी लैंगिक पहचान के कारण परेशान बालकों के लिए ऐसे लोगों से बात करना बेहद मुश्किल हो जाता है, जिनमें वे अपनी लैंगिक पहचान की झलक नहीं देख पाते या उसने जुड़ नहीं पाते. यह अक्सर इसलिए होता है क्योंकि बालकों को लगता है कि कोई यह नहीं समझ पाएगा कि वह क्या महसूस कर रहे हैं. इस तरह के केसों में ऐसे समुदाय के रिसोर्स पर्सन को जोड़ने से बालक को खुलकर बात करने और ग्रहणशील होने में मदद मिलती है. इससे बालकों को अपनी लैंगिकता और अपनी पहचान पर और भी अधिक भरोसा होगा.

Share on facebook
Share on twitter
Share on linkedin
Share on whatsapp
Share on email
Share on telegram
Share on facebook